Why! between humour and emotion there lies a vast plane of confusion. Why appearance is deceptive. Why we can not trust things at their face value. Mr Khallas wonders if he needs sixth sense to understand the world. Enjoy reading from confused Khallas.
आओ सुनाए तुमको आज और अन्दाज में
कहीं वो आजमाने न लगें हमको अपने ही अन्दाज में
शराफत तो बस skin deep है
अन्यथा तो बस गुनाह ही गुनाह है
फुसफुसा कर कान में कुछ यूँ कहा उसने
खल्लास समझ बैठे कुछ महत्वपूर्ण कहा उसने
वो एक के पीछे zero लगाते गये
खल्लास उधर खड़े मुस्कराते रहे
वो सुरक्षा चक्र बढ़ाते गए
खल्लास दुआ में हाथ उठाते गए
वो कृत्रिम प्रक्रियाओं की प्राथमिकता समझाते गए
खल्लास प्रकृति के नियम दोहराते रहे
खल्लास जिधर मुड़ जाओ रास्ते खुल जाते हैं
चलते चले जाओ रास्ते फिर मिल जाते हैं
शिकवे शिकायत से क्या लेना देना
चलो आज बिन बहाने कुछ समय गुजारें
अब दिन और रात में भेद कहां
समय का तकाज़ा है
खल्लास बचा ही क्या जो गंवाना है
चंद कदम चले ही थे कि पग डगमगाने लगे
दो जाम पिए भी न थे कि होश में आने लगे
चले जब बन ठन के तो ये भूल गये
चलना संभल संभल के जो सुनते आये थे बचपन से
यादें तो होती है भूल जाने के लिये
चंद खूबियां काफी हैं दुनियादारी निभाने के लिये
हमको सिखाते रहे जीने कि कला जो मर मर के
हम साथ भी निभा न सके उनसे दो पल के लिये
रुके ऐसे कि चलना भी भूल गये
मंजिल तो मंजिल रास्ता भी भूल गये
रूह ज़िस्म में न नशा जाम में
हर रोज होता है जब सूरज आसमान में
चलने दो दौर जाम के रुकने न दो
मंजिल तो बहाना है, दूर हमको जाना है
बंजर हो जाये जमीं तो कर लेना याद जरा
क्यूँ कभी गुलिस्ता सजा करते थे यहाँ
जमीं जब सूरज को निगलने लगे
लौट चलो, कहते हैं शाम होने लगी
चंद कदमों की थी ये ज़िन्दगी
फिर बेइन्तहा लफ़्ज़ों में क्यूँ उलझ गयी ये ज़िन्दगी
क़तरा क़तरा ज़िस्म से जान जब निकलने लगे
मुस्करा लो, यही तो निशां है, मंजिल अब आसां है
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I have often wondered the same! Lovely read 🙂